स्तम्भ : गीत-स्मृति -- चढ़ती धूप के साथ तपन : उत्सव पुरुष शिवमंगल सिंह सुमन
-- डॉ. सुरेश गौतम
यौवन की देहरी पर पैर रखते ही अन्तर्मन का रागमय उच्छास तो बहुतों के अधरों पर कविता बनकर फुटता है, किन्तु उनकी संख्या कम होती है जो इस प्रथमोन्मेष को ही अन्तिम नहीं बन जाने देते तथा जिनकी कविता निरन्तर विकास-पथ पर अग्रसर होती रहती हैउच्छासमय भावनाओं को जीवन की चढ़ती धूप के साथ तपन का फल भोगना पड़ता है। जीवन इतना ऋजु नहीं कि उन्हीं क्षणों को बाँधकर व्यक्ति जीवन की दीर्घ-स्मृति को लाँघ सके । नित नए क्षणों का अनुभव करता हुआ व्यक्ति-मन किशोर भावनाओं से बँधा नहीं रह पाता, भावों की मृदुलता प्रौढ़ता के द्वार पर आकर बुद्धि का संस्पर्श पा अपनी देह को फिरफिर सँवारती रहती है। उर्वर मेधा अपने लिए सर्वथा नवीन मार्गों की खोज कर ही लेती हैकविता का स्वर भी समय के संगीत की स्वर-लहरियों से एकाकार होकर प्रवाहित और प्रसारित होने लगता है, लेकिन इस परिवर्तन में भी सच्चे कवि का हार्दिक अनुभूति-आवेग ही स्वरित होता है, जीवन के ताप से प्रेरित विदग्ध भावोच्छास ही उसकी साँस-साँस में मुखरित होने लगते हैं। शिवमंगल सिंह सुमन का काव्य इसका प्रमाण है। इनके पौरुष में उत्सवधर्मी लय गूंजती है।
इनके गीतों को प्रमुख रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- प्रणय-गीत और प्रगतिवादी गीत। प्रणय-गीतों की संख्या अधिक होते हुए भी उनकी गणना प्रगतिवादी धारा के कवियों की श्रेणी में की जाती है। यद्यपि ‘हिल्लोल' जैसी प्रारम्भिक रचनाओं में किशोरावस्था की भावुकता का हृदयग्राही चित्रं में छायावादी प्रेम का प्रभाव लक्षित किया जा सकता है, जिसे सुमन ने स्वयं स्वीकार किया है_
'हिल्लोल' में जीवन और जगत् के प्रति तीव्रतम जिज्ञासा, विस्मय, राग और सम्भ्रम का भाव हैमानसिक परिवेश ही रोमांटिक था, फिर विश्वविद्यालय का अपना भावुकतापूर्ण वातावरण! मेरे मन की हिल्लोल इसी अन्तर्बाह्य परिवेश में तरंगित हो रही थी। किसी हद तक उसे वासना कहने में भी संकोच नहीं, क्योंकि इस सृष्टि को ही 'वासना वासुदेवस्य' कहा गया है। 'हिल्लोल' के कवि के रूप में छायावाद की वायवीयता, रहस्यावरण और एक खास किस्म की फ़न्तासी से भिन्न चल रही यथार्थवादी रूमानी प्रवृत्ति से सम्बद्ध था- (डॉ. सुमन का आत्मावगाहन: वक्तव्य केघेराव में: प्रभाकर श्रोत्रियः शिवमंगल सिंह सुमनः मनुष्य और स्रष्टा)। 'जीवन के गान' के इक्यावन गीतों में पर्याप्त वैविध्य है। काव्य वस्तु की विविधा के बावजूद इसमें प्रगतिशील चेतना का स्वर प्रमुख है, किन्तु प्रतिबद्धता नहीं है। प्राक्कथन में कवि के विचार व्यक्तित्व के प्रगतिशील होने के साधन तत्त्वों का परिचय देते हैं। गीत जीवन-संघर्ष के अभिन्न अंग के रूप में रचे गए हैं।
____ 'मेरा पथ मत रोको रानी', 'आज कवि कैसी निराशा', 'विद्रोह करो, विद्रोह करो' संघर्ष की संकल्पात्मक अभिव्यक्ति है। वस्तुतः रचनाकार अपने संघर्षशील दायित्व के निर्वाह तथा संघर्ष के गत्यात्मक यथार्थ की कविता-प्रस्तुति में सजनधर्मी ईमानदारी और वाद-मुक्तकाव्य-यात्रा का स्पष्ट संकेत देता है। सरस लयात्मक गीतितत्त्व समीक्ष्य पुस्तक की निजी विशेषता है.
___ 'मत पूछो मुझसे कवि तुमने क्यों प्रेम तराने बंद किये / प्रेमालिंगन... की मस्ती के गाने बंद किये'
यहाँ कवि ‘हिल्लोल' की वैयक्ति के प्रेमजन्य निराश भावनाओं को तिलांजलि देकर जीवन और जगत् की वास्तविकताओं में प्रवेश करता है। सुमन स्वयं लिखते हैं- 'जीवन के गान' में मैं जीवन-संघर्ष में दलित वर्ग की विजय कामना कर दूर से बैठा स्वागत की तैयारियाँ करने वाला ही नहीं रहा हूँ। 'जीवन के गान' में मुझे इतनी चेतना और मिली कि मैं भी उस संघर्ष का एक अंग हूँ और उसमें सक्रिय भाग लेने के लिए, उसका अभिन्न अंग बनने के लिए मैं सजग हो उठा हूँ' (जीवन के गान (भूमिका)। यहाँ कवि अपने प्रिय को भी जीवनसंघर्षों में जूझने का आमंत्रण देता है-
'तुम भी रणचण्डी बन जाओ,
मैं क्रान्ति कुमारी का अनुचर।'
' 'जीवन के गान' में भी मेरे इसी गीत-दर्शन ने राष्ट्रीयता के एक स्पष्ट मोड़ पर मुझे ला खड़ा किया और एकबारगी मेरी मूल रूमानी भावना से पृथक मुझे क्रान्ति की ज्वाला में झोंक दिया, यहीं प्रसंगत: मैं कह दूँ कि मेरे अनगढ़, भावुक युवा मन पर सबसे पहले गाँधी का प्रभाव पड़ा था, लेकिन इससे पहले कि वह प्रभाव मेरी कवि- चतना का अग बन कविता में उतरता , मुझे सशस्त्र क्रान्ति की लपटों ने विमोहित कर लिया। चन्द्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह आदि की क्रान्तिकारी भावना से मेरा मन अभिभूत हो उठा। जब मैं मैट्रिक में था तभी भगतसिंह के वीरोचित बलिदान ने मुझे झकझोर दिया था। इस प्रभाव के सहारे और ओज के आवेग में मैं क्रान्तिकारियों के अखाड़े का लतमार बन गया। मेरी रूमानी विह्नलता का इस बाहरी क्रान्ति में परिवर्तन एक स्वाभाविक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया थी। इसी समय माक्सवादी श्री रूस्तम सैटिन से सम्पर्क हुआ। उनके निरन्तर साहचर्य से मैं माक्सवादी विचारधारा से अधिकाधिक प्रभावित होता गया। सैटिन जी बनारस में थे और मैं ग्वालियर में। वे जब भी ग्वालियर आते थे, हम दोनों घंटों फूलबाग में अंगारों की बात करते थे।
'विश्वास बढ़ता ही गया' में , कवि की आस्था तथा विश्वास की प्रभावशाली अभिव्यक्तियाँ उसे और अधिक सन्तुलित बनाए हुए हैंजन-संघर्ष और जन-शक्ति के प्रसार, साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विनाश तथा एक नए समाज और नए विश्व की सफलता के लिए आगे कवि का विश्वास बढ़ता ही गया' है। यहाँ उसकी दृष्टि अधिक व्यापक, सच्चे अर्थों में अंतर्राष्ट्रीय और प्रबुद्ध है। निराशा, पस्ती और कमज़ोरी यहाँ लेशमात्र भी नहीं है, वरन् आस्था-विश्वास और दृढ़ता का समन्वित स्वर अधिक प्रत्यक्ष है- 'मैं मनुष्य के भविष्य से निराश नहीं' (विश्वास बढ़ता ही गया)। वह देश की ही नहीं, सारे एशिया और विश्व की जनता की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करता देखता है और मुक्तकंठ से उसका अभिनन्दन करता है (द्रष्टव्य : विश्वास बढ़ता ही गया : 'नयी आग है नयी आग है' शीर्षक कविता)। देश के भीतर घटने वाली कतिपय घटनाएँ जहाँ उसकी आस्था को बल प्रदान करती हैं.
(द्रष्टव्य : 'आज देश की मिट्टी बोल उठी'- साम्प्रदायिक दंगों पर), वहाँ विक्षुब्ध भी करती हैं (द्रष्टव्य : 'मेरा देश जल रहा है' : साम्प्रदायिक दंगों पर)। लेकिन देश के स्वाधीन होने पर कवि के क्रान्ति के तीव्र सन्देश मंद पड़ गए हैं।
विश्वास बढ़ता ही गया' के पश्चात् ‘पर आँखें नहीं भरीं' में कवि आगे बढ़ने के बजाय क्रान्ति-कथ्य की दृष्टि से पीछे लौटा है। समय और स्थिति कुछ अनुकूल होते ही लगता है कि कवि अपनी मनोभूमि को ताज़ा करने के लिए चेतन मन की उमंगों को पुनः दुलारता है। इस दुलार में दायित्वहीनता नहीं है। 'कुछ क्षण' वह अपने तरीके से जीना चाहता है, लेकिन गत्यात्मकता को त्यागता नहीं है, यही उसकी प्रगति-चेतना है, प्रतिबद्धता है।
प्रसाद की भाँति शिवमंगल सिंह सुमन भी यह स्वीकार करके चलते हैं कि किशोरावस्था नूतन अनुभूतियों को जन्म देती है। किशोरावस्था का आगमन प्रेम को वसन्त का सन्देश है। प्रेम की अनुभूतियों का वासन्ती उल्लास किशोरावस्था के आते ही हृदय में अपना स्थान बना लेता है। प्रेम में लेने-देने की प्रक्रिया प्रेम पात्र की खोज को विवश करती है और तब तक सामान्य विरह की पीडा प्रेम की कोमल भावनाओं को पीड़ित करती रहती है। इस मनोविज्ञान और स्वाभाविक खिन्नता को कवि ने अच्छी तरह देखा- परखा है और उलाहने के रूप में सटीक चित्र खींचे हैं----
(द्रष्टव्य : पर आँखें नहीं भरीं)----प्रेम विवशता का पर्याय है, जिसके लिए सक्रिय आयास का अवकाश नहीं होता। भावात्मक सम्बन्धों की तीव्रता परिस्थितियों को स्वयं ही अपने अनुकूल बना लेती है, व्यक्ति इस कठिन अनजान पथ पर लक्ष्य की ओर चलने की गति बनाए रखता है और स्वयं गन्तव्य उसका अभिनन्दन करने को प्रस्तत होता है. मार्ग की टेढ़ी-मेढी डगर स्वयं ही गन्तव्य पर जाकर समाप्त हो जाती है ('मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार, पथ ही मुड़ गया था'- पर आँखें नहीं भरीं)।
प्रेम के आकर्षण के लिए 'सुमन' रूप की पिपासा को अनिवार्य स्वीकार करते हैं। प्रेम का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष स्वस्थ शृंगार है और शृंगारिक भावों की उत्पत्ति के लिए रूप और यौवन की मादक धरती चाहिए। गीतकार को अपने चारों ओर प्रिय के अछूते सौन्दर्य की रश्मियों का प्रकाश प्रतीत होता है जो क्षण-क्षण नूतन परिधान ओढ़कर कवि को बेचैन तथा आकर्षित करता रहता है। वह ढकी, छिपी वस्तु नहीं है। तिल-तिल नूतन होती' अनुपम सौन्दर्य की अलौकिक रश्मियों को कवि जितना अधिक पीता है, उसके मायने उतने ही अधिक अतृप्ति और दर्शन के प्यासे बने रहते हैंउसके नयन याचक की भाँति अपने प्रिय के अनिन्द्य सौन्दर्य को आँखों में भर लेना चाहते हैं, लेकिन उसकी असमर्थता है.
'शब्द, रूप, रस, गन्ध तुम्हारी / कण-कण में बिखरी
मिलन साँझ की लाज तुम्हारी / ऊषा बन निखरी
कितनी बार तुम्हें देखा / पर आँखें नहीं भरीं।' (पर आँखें नहीं भरीं)
वेदना के बिना सच्चे प्रेम का मूल्यांकन नहीं हो सकता, इसलिए वेदना प्रेम का अनिवार्य तत्व है। अतः इस वेदना की प्राप्ति 'सुमन' को भी हुई। 'सुमन' इस बात से अनभिज्ञ नहीं कि प्रेम-दाह प्रकृति का अनिवार्य नियम है, जहाँ किसी प्रकार के अपवाद का अवकाश नहींअतः इस प्रकार की अभिव्यक्ति की कोई उपयोगिता ही नहीं है।
कवि 'वेदना' को प्रिय का मीठा उपहार समझता है, इसलिए आरम्भिक अवस्था में छायावादियों के दृष्टिकोण के समानान्तर प्रेम की वेदना को प्रिय का अमूल्य और अनिवार्य उपहार समझकर उसने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया है (द्रष्टव्य : हिल्लोल)। लेखक के विचार से इस सहर्ष स्वीकति के पीछे उनका अपना मनोविज्ञान कार्य कर रहा था। कवि इस समय तक स्वयं को निरीह एवं अकिंचन समझकर अपने अस्तित्व के प्रति पूर्ण चेतन नहीं था। इसलिए प्रेमपात्र से उसे जो कुछ भी प्राप्त हुआ, चाहे वह वेदना अथवा कटुता ही क्यों न हो, उसने उसे अमूल्य निधि समझकर सँजो लिया। लेकिन जब कवि का भाव जगत् छायावादी कुहासे की धूप को चीरकर उन्मुक्त गगन में विचरने को स्वछन्द हुआ, तब यथार्थ की सुनहरी धूप ने उसका अभिनन्दन किया। उन क्षणों में कवि की अनुभूतियों ने नयी दिशा में करवटें लीं. तभी उसका यह विषम प्रेम इस्पात की तरह कठोर, पर कोमलांगी प्रिया के पाषाण भाव भी शायद उसे रूचिकर प्रतीत नहीं हुए--
'व्यर्थ गया सब स्नेह समर्पण /
व्यर्थ गया सब पूजन अर्चन
वे न हिले, डोले, मुस्काए,
हम अपना हिय हारे पत्थर के ये देव हमारे।' (हिल्लोल)
और यही से सुमन के गीतों ने नई करवटें लीं। नयी दिशा ग्रहण कर परिपक्वता का परिचय दिया। यही वह बिन्दु था जब पाषाण के देवता से सिर पटक-पटककर निष्कर्ष निकला-निराशा, अनास्था, असफलता तथा ऋणात्मक दृष्टिकोण -
'जिस पनिहारिन की गगरी पर,
मैं ललचाया वह लुढक गई
जिस-जिस प्याली पर धरे अधर,
वह, बस छूते ही छलक गई।' ( हिल्लोल)
सुमन के गीतों में प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण कहीं नहीं है। आलम्बन रूप के स्थान पर उन्होंने अधिकांश रूप में प्रकृति को प्रतीक रूप में अपनाया है। 'कैसा मधुर सुप्रभात था', 'निर्झर' और 'सूरज ढल रहा' में प्रकृति के सुन्दर चित्र हैं। 'निर्झर' यौवन का प्रतीक है। सुन्दर अप्रस्तुतों के चयन में कवि-कल्पना समृद्ध है। प्रकृति-सम्बन्धी कविताएँ या परवर्ती प्रणय-रचनाएँ इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय हैं। ‘पर आँखें नहीं भरीं' के प्रकृ ति चित्र आकर्षक बन पड़े हैं। यहाँ कवि ने प्रकृति के चित्रों को और अधिक रमणीय बनाने के लिए लोक-शैली का आश्रय लिया है। छायावाद के आरम्भिक चरण में नारी की तुलना में प्रकृति को अधिक महत्त्व दिया गया। नारी की अपेक्षा प्रकृति को महत्त्व देने का एक विशेष उद्देश्य था कि प्रकृति नारी के स्थान पर उन समस्त भावनाओं की पूर्ति करे जिनकी तृप्ति अब तक नारी करती आई हैप्रकृति के प्रति सुमन का आरम्भिक दृष्टिकोण भी यही था। वे चाहते थे कि सुन्दरी की सुराहीदार गरदन, कपोलों की अरुणिमा एवं कुंचित कचजाल में विश्राम न कर प्रकृति के विभिन्न उपकरणों में वह स्वच्छन्द विहार करे (द्रष्टव्य : हिल्लोल)। किन्तु उत्तरकाल में आकर प्रकृति शृंगार की सहचरी बनकर विरह को उद्दीप्त करने का साधन बन गई, जिनमें ऋतुओं को कवि ने विशेष महत्त्व प्रदान किया। शृंगारिक भावनाओं की स्वस्थ अभिव्यक्ति के लिए पावस तथा शरद् ऋतुओं का ही अधिक अभिनन्दन किया गया है। कवि को भी शरद् की स्वच्छ चाँदनी में अपने हृदय का झाँकता प्रतिबिम्ब व स्मृति ज्योत्स्ना से अठखेलियाँ खेलता-सा प्रतीत होता है-
'चाँद बड़भागी किसी की छवि सुधा पीकर गया छक
आज दिन सो ले जगेगी रात अपलक
बिन्दु मन में सिन्धु की साधे समाईं
चाँदनी छाई किसी की याद आई।' (पर आँखें नहीं भरीं)
'पावस ऋतु' लोकगीतों की विरहिणी को व्यथित कर तड़पाने वाली भारतीय वाङमय की चिर-परिचिता अत्याचारिणी है.सुमन ने भी प्रोषित-पतिका तथा आगत-पतिका के इसी मीठे दर्द को स्पष्ट स्वर दिए हैं जो मेघों के संगीत से उत्पन्न होते हैं (द्रष्टव्य : हिल्लोल)।
जनवादी भूमिका पर रचित 'सुमन' का काव्य अन्य प्रगतिवादी . कवियों के काव्य से कम उद्वेलनशील नहीं है। क्रान्ति के स्वर उनके हृदय से फटे हैं, अत: प्लेटफार्मी प्रचारात्मक साहित्य में उनके संवेदनशील कवि की स्थिति कुछ भिन्न होते हुए भी अति महत्त्वपूर्ण है। 'हिल्लोल' से लेकर 'वाणी की व्यथा' तक का विकासक्रम इसे बिल्कुल स्पष्ट कर देता है। जब हम उन्हें प्रगतिवादी कवियों के साथ स्वीकारते हैं, तो इसका आशय केवल इतना ही है कि वे वैचारिक रूप से मास-दर्शन से प्रभावित रहे हैं और उन्होंने तद्प कविताएँ लिखी हैं। उनका कवि प्रगतिवादी बन्धन में आकर चिरकाल तक नहीं बँधा रहा। वे उत्तर-छायावादी शैली के कवि बच्चन आदि के सहधर्मी, निराला की पीढ़ी के गायक, मुक्ति बोध के कवि-जीवन के भक्ता और नयी रचनाओं के स्वर से मिलकर चलने वाले कवि रहे हैं। उनमें राष्ट्रीय विषमताओं के प्रति क्षोभ को व्यक्त करने वाला ऊर्जस्वित और अनुराग शीतलता को रूपायित करने वाला तरल व्यक्तित्व एक साथ है। वे स्वभाव से गीतकार हैं। गीतों का विषय कवि की चेतना में लहराकर तरल बनता और हिलोरें खाता हुआ बाहर निकल पड़ता है। 'सुमन' में गुरु गम्भीर आस्था का विश्वासमय स्वर है। उसका कवि-मानस विश्वयुद्धों की चपेट में ठोकरें खाकर भी नहीं टूटा। 'प्रलय-सृजन' संग्रह में 'मास्को अब भी दूर है', 'विश्वास बढ़ता ही गया' में 'आज मिट्टी बोल रही है' आदि रचनाएँ इसका प्रमाण हैं। उपयोगितावादी दृष्टिकोण होने के कारण 'मिट्टी' सर्वाधिक सुन्दर वस्तु है और बारबार पार्थिव होकर अपार्थिव होने का जीवट भी सर्वाधिक मिट्टी में ही है। मिट-मिट कर सँवरने में ही उसकी महिमा है। माँ से अधिक धैर्यशाली मिट्टी हलाहल पीकर भी अपने विश्वास को अक्षय कर जाती है
'मिट्टी में स्वर है, संयम है, होनी अनहोनी कहलाए,
हँस कर हलाहल पी जाए, छाती पर सब कुछ सह जाए।
कवि मिट जाता है लेकिन उसका उच्छ्वास अमर हो जाता है
मिट्टी गल जाती है पर उसका विश्वास अमर हो जाता है।' (पर आँखें नहीं भरीं)
'मिट्टी बारात' वैविध्यपूर्ण रचना है, जिसमें कोमल, स्निग्ध प्रेम-गीत भी हैं और 'मालीपुरे की होली', 'वासना वासुदेवस्य', 'सुलगते क्षण' जैसी वासनात्मक कविताएँ भी। 'महाप्राण के महाप्रयाण' में कवि की ही व्यथा-कथा है कि कै से एक 'सर्जक' सामाजिकों की ओर से निरादृत और उपेक्षित होता रहा है। इस संग्रह में किसानों की दुर्दशा, आज़ादी की त्रसदायी स्थितियों का अंकन भी बखूबी है। पौराणिक बिम्बों और प्रतीकों का आश्रय लेकर वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था पर गहरी चोटें हैं।
लोकमानव-उत्कर्ष के लिए कवि यहाँ अपने आप से बुरी तरह जूझता दिखायी देता है। द्वन्द्व अब सूक्ष्म स्तर पर है। मानवीय मूल्यों के संरक्षण में यहाँ कवि-चेतना अधिक सजग है। आस्था का आधार चिन्तन की व्यापकता के साथ हृदय के घलाव में परी घनोतिमा लेकर ककता है। संवेदना बहुआयामी होकर वैश्विक चेतना के द्वारों को लाँघती चली जाती है। व्यंग्य की धार, तिक्त अनुताप, नश्तर-चुभन, आलोचनात्मक अभिमुख दृष्टि रचनात्मक संचयन की भाव वीथिका से गुजरकर कवि-चेतना इस संग्रह में अपना चहुँमुखी प्रसार करती है। यही इस संग्रह की विशिष्टता है।
___ 'वाणी की व्यथा' संग्रह मानव को आत्मनिरीक्षण की ओर प्रवृत्त करता है। वाद जड़ित प्रतिबद्ध प्रगतिवाद के समस्त चिन्तन, आदर्शों, विचारों को कवि की प्रगतिशील चेतना ने इस संग्रह में उलट दिया है। सामाजिक विषमताओं से निरन्तर जूझती कवि-संवेदना को यहाँ अपनी 'प्रगति-बद्धता' खोखली प्रतीत होने लगती हैप्रगतिशीलता का मिथ्यादर्शन उसके मनोबल को तोड़ने लगता है। परम्पराओं को तोड़ना, उपेक्षित एवं नज़रअन्दाज़ करना, उन्हें नकारना बहुत आसान है, लेकिन आस्थापूर्ण नवीन 'शिवमांगलिक' परम्पराओं का सृजन ही कवि की वास्तविक और सार्थक पहचान है। कवि इस आस्थापूर्ण दायित्व के प्रति यहाँ पूर्णतया गंभीर है। संचेतन संकल्प के अर्थ में मनुष्य-नियति का अध्ययन हमारे सामने समाज को नए संदर्भो में व्यक्त करता है। समाज और मनुष्य- नियति की नब्ज टटोलते हुए यदि किसी सचेतन संकल्प- विकल्प के लिए परम्पराओं का भंजन करना पड़े, तो वह सर्वथा रचनात्मक है और नहीं तो परम्पराओं की लक्ष्मण- रेखाओं का उल्लंघन नहीं करना चाहिये -
'अब भी पत्नी पू जती है / करवा चौथ /
रखती हरतालिका व्रत / और मैं / निरीह-सा /
बैठा, झक मारता हूँ / अपनी प्रगतिशीलता पर /
पंडा जी / एक ही झपाटे में / झटक ले जाते हैं,
अनर्गल अभिषेक की / चतुर्मासी दक्षिणा /
फिर भी मैं/ उसके विश्वासों को / ठेस नहीं पहुँचाता /
जब तलक एवज में / गढ़ कर न दे पाऊँ /
नूतन विश्वासों की निर्भर द्रवणशीलता।'
प्रगतिवादी घेरा टूटता है। प्रतिबद्धता हाथ बाँधे खड़ी रहती है और कवि 'पैट्रिक लुमुम्बा के अभिनन्दन' में रचित कविता की लयात्मकता में ऐसे जीवन्त बिम्बों का रचाव करता है, मानो मनुष्यता को सार्थक अर्थ दे रहा हो। लोक-परिवेश लोकभाषा में ही बोलता है----------
'तुम्हारा रूप-रंग/ हमसे बहुत मिलता है /
इस आबोहवा में/ तुम्हारी मुस्कान का /
रंग खूब खिलता है /
छान-छप्पर-मकई-धान / वन-बीहड़ बियाबान/
सगे-सहोदर से सब/ कर लेंगे पहचान /
तुम तो बेरोक टोक, गलियाँ-गलियारों में/
निधड़क जा सकते हो।
आँगन में खटिया डाल/ दूध-दही-छाछ दाल /
दादी माँ-बहनों के / बतरस उल्लासों में /
गरम-गरम रोटी सेंक/ ढोलक या खंजड़ी पर/ कजली गा सकते हो।'
प्रतीक और बिम्ब भी कवि ने पौराणिक लिए हैं। 'खेतों में शिल्प-सौध' केवल लैण्डस्कोप नहीं है। उसके शब्द-चित्र खेतों के बीचों-बीच सीना ताने शैल्पिक-प्रतिमा से जान पड़ते हैं। यहाँ कवि का शिल्पी हृदय गा उठा है
'साधना अनोखी यह/ अन्नमय प्राणों को /
मनोमय करने की जैसे सीरध्वज के /
हल के स्वरारोहों में / सीता उभर आई हो।' (वाणी की व्यथा)
क्रोध और वीर का समन्वय तो प्रायः हर कवि कर लेता है, परन्तु 'रूखावर्ष-सूखावर्ष' में करूणा और आक्रोश की मुस्कान-प्रतीति है।अर्थ-विस्तार करते हुए कवि-संवेदना रूखेसूखे वर्ष में भी मानवीयता के अंकुर बीजती जाती है। सूखे' को नई अर्थ गरिमा देकर कवि उसके पन्ने पर पन्ने खोलता है'सूखा' प्राकृतिक 'गाली' ही नहीं, मानवीय क्रूरता, पाशविकता, स्वार्थपरता, संकीर्णता, आत्म-सीमितता का परिणाम भी है, मानव अधिकारों की हत्या है। कवि इस सम्पूर्ण-भाव को यक्ष-यक्षिणी जैसे पौराणिक प्रतीकों के ब्याज से कुशलतापूर्वक रचता है.
'जल रहे हैं दीप जलती है जवानी' नामक लम्बी कविता या गीत आख्यान में भी एक लयात्मक गूंज और ओजस्वी प्रवाह है। बकौल शिवमंगल सिंह सुमन के इस गीतनुमा लम्बी कविता में भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में माक्सीय चिन्तन का गुम्फन करते हुए, अधुनातन लोक चेतना और लोक कल्याण की भावना का रूपायन' हुआ है। प्रगतिवादी भाषा की जकड़न यहाँ खुले में महसूस होती है, जिसमें उन्होंने आधुनिक शब्दावली से प्राचीन सन्दर्भो को जोड़ा है। राम सर्वहारा वर्ग के प्रतीक हैं, जिन्हें सामन्तवादी साजिश के तहत अधिकारों से च्युत कर दिया गया है। राम द्वारा शिवधनुष तोड़ना परम्पराओं और रूढ़ियों को तोड़ना है। ऐसे राम से अधिकारों को छीनना साज़िश नहीं तो क्या है? सर्वहारा वनवासियों ने एकजुट होकर अपनी कर्मशक्ति पर भरोसा रख पहाड़ों को लाँघा और समुद्र को बाँधा। सत्ता एवं सामन्तवादी ऐसी साजिशों के खिलाफ मुक्ति कोई जादूगर नहीं दिलवाता, बल्कि जन-शक्ति के बल पर ही ऐसे षड्यन्त्रों को बीच धारा से तोड़ा जाता है-
'घड़ी अन्तिम समझ दुनुजकुल जले शोले गिराता था
प्रबल जनबल उन्हें फिर मोड़कर उन पर ही फिराता था।' (जल रहे हैं दीप जलती है जवानी)
हालाँकि अनेक जगह यह गीत-आख्यान टूटा-टूटा सा है। जहाँ कहीं मंचीय नाप-तोल है, वहाँ कवि की काव्य चेतना रिरियाने लगती है। इसके बावजूद 'जल रहे हैं दीप जलती है जवानी' गीत आख्यान को आलोचना की उन कसौटियों की दरकार नहीं है, जिन्हें सामान्यीकरण की हद तक तथाकथित ठेठ समालोचक ले आये हैं। यह अकेला गीत आख्यान ही स [मन के शिखर-उत्सव का प्रतीक है। इसमें सुमन सम्पूर्ण है। माक्सीय गहन वैचारिक रचनात्मक चिन्तन, अभिव्यंजन-अन्वेषण, रोमांस-आस्था, जीवट-जिजीविषा, संघर्ष-चुनौती, आशा-सृजन, रूढ़ि- भंजन सभी दृष्टियों सेप्रतिबद्ध मानवीय सरोकारों से निबद्ध सुमन की मंगल-चेतना की सिंह हुंकार धरती की छाती फोड़कर शान से सिर उठाते 'अंकुर' में निहित है-
'मृत्यु पर जीवन-विजय उद्घोष करता
मैं अमर ललकार हूँ, चारा नहीं हूँ।'
सद्यः प्रकाशित संग्रह कटे अंगूठों की बंदनवारें' (सन् 1993) में पुरानी और नई दानों प्रकार की रचनाएँ संकलित हैंस्वाधीनता-शिशु के पहले जन्मदिवस 15 अगस्त 1948 पर लिखी उनकी गीत रचना जीवन की कड़वाहट का अक्स खींचते हुए सत्ता-सूत्र सम्हाले नेताओं और जनता का ध्यान अपनी ओर खींचती है। 1948 से 1993 तक का सफ़र तेजाबी मानसिकता का सफ़र रहा है। मनुष्य कमोबेश उसी मुहाने पर खड़ा है, जहाँ सन् 1948 में खड़ा था। कवि की इस रचना की प्रासांगिकता को परखिए
'हमने जो सपने देखे, यह/ उस आजादी का वेष नहीं /
देखो उस उजली खादी में/कोई कालिख तो शेष नहीं/
अब भी जन जीवन जर्जर है/ घर उजड़े हैं, मुँह सूखे हैं।
चालीस कोटि भगवान हमारे/ अब भी नंगे भूखे हैं।' ___
अंधेरों के इस कारवाँ ने मनुष्य को हर दृष्टि से तोड़ा-चटकाया है। चटकाव-बहक की झूलती ये बंदनवारें व्यक्ति-समाज की मानस-भूमि को दरारती चली हैं। लेकिन मनुष्य की अदम्य कर्म रोशनी उसे इस अवसाद-विषाद की आदमखोर हवाओं से जूझने का संकल्प देती हैं। इधरउधर के अँधेरों को ('इधर भी अँधेरा उधर भी अँधेरा') चीर कर मनुष्य का अपराजेय विश्वास नये पथों की सृजनशील भूमिका बनाता है। यह जीवन का आरम्भ है, उपसंहार नहीं-
'ये बेड़ा कहाँ पार जाकर लगेगा
इधर भी अँधेरा उधर भी अँधेरा
नए माँझियों ने नए जोश से कल
नई बल्लियों में नए पाल बाँधे
कमर में उमंगों के फेंटे लपेटे
नई साध से फिर नए डाँड साधे
नई बाढ़ में छोड़ दी मुक्त नौका
नए हौसलों की हिलोरें उठाते
नए ज्वार में सर्जना के स्वरों में
धरा औ' गगन के मिलन गीत गाते।'
नवीन उपमानों के क्षेत्र में समन ने अन्य कवियों की भाँति प्राकृतिक, पौराणिक तथा ऐतिहासिक क्षेत्रों का ही चयन किया है। प्रगतिवादी विचारधारा को स्वीकारने के कारण वर्तमान आर्थिक व्यवस्था से भी उन्होंने नवीन उपमानों की खोज की है। प्राकृतिक क्षेत्र में उसके स्वतन्त्र रूप से दूर एवं मानवीय समाज के वैषम्य से ऊपर उठने में वह असमर्थ रहा है। इसे हम छायावादी प्रभाव भी कह सकते हैं, जिससे कवि मुक्त नहीं हो पाया, क्योंकि प्रकृति के प्रति यही दृष्टिकोण छायावादियों का भी रहा है। पौराणिक उपमानों के क्षेत्र में तथा प्रसंग गर्भत्व के रूप में सुमन ने समग्र प्रसंगों को ही अपना लिया है, जो आधुनिक प्रवृत्ति का परिचायक है-
‘सोचता हूँ आदि कवि क्या दे गए हैं हमें थाती
क्रौंचनी की वेदना से भर गई थी हाय छाती
जबकि पक्षी की व्यथा से आदि कवि का व्यथित अन्तर
प्रेरणा कैसे न दे कवि को मनुज का कंकाल जर्जर।'
वस्तुतः सुमन का कवित्व-उद्गम प्रेम-रोमांस से जुड़ा है। अपने युग में व्याप्त घोर उत्पीड़न को अपनी साँसों में अनुभव करते हुए कालान्तर में कवि ने अपनी दिशा बदल दी थी- 'अतः मूल में निहित स्नेहमय / उसी प्रज्वलित लौ की कम्पनय् ने सुमन केसम्पूर्ण काव्य में अपने को प्रसारित कर लिया। 'हिल्लोल' के प्रेम-गीतों के पश्चात् 'जीवन के गान', 'प्रलय सृजन' और 'विश्वास बढ़ता ही गया' इसी नवीन भावधारा की रचनाएँ हैं। लेकिन ‘पर आँखें नहीं भरीं' में कवि पुन: अपनी मूल चेतना की ओर लौट आया है। प्रेम की तरल रचनाओं में कवि का नफ़ीस शिल्प कमनीय लोच के साथ बोलता हैअनुभूति-प्रतीतियों के प्यार भरे नन्हें-नन्हें स्पर्श- स्पन्दनों की भीतरी तह फूटकर कवि की सृजन-भूमि को साधारणीकृत आकार देती है। इन स्पर्श-स्पन्दनों से प्रगतिशील रचनाएँ भी अछूती नहीं हैं। यौवन की देह गंध पतंग बन जाती है जब 'गुनिया' अंगड़ाई लेती है-
'जब उड़ा ओढ़नी मलयज की
पल में कृतार्थ हो जाता था
जब उभरे अंगों को छूने
सावन घन घिर-घिर आता था।'
राम-सीता के संसक्त संयोग-क्षणों को भी देखा जा सकता है-
'धरा की लाडली प्रिय से लिपटने को ललकती थी
नई कोंपल के ओंठों से नई कलिका किलकती थी।'
आलोचक की दृष्टि में सुमन जी की भाषा विकासशील प्रवृत्ति की ओर उन्मुख है। प्रमाण के रूप में प्रारम्भ में उन्होंने अनेक स्थानों पर मध्ययुगीन काल की भाषा को अपनाया है-
'विरचे शिव, विष्णु विरंचि विपुल
अगणित ब्रह्माण्ड हिलाये हैं।' (पर आँखें नहीं भरीं)
तत्पश्चात् सुमन काफ़ी समय तक छायावादी कुहेलिका में भटकते रहे हैं। उनके समस्त प्रारम्भिक साहित्य पर छायावादी शब्दावली का एकछत्र साम्राज्य रहा है। शब्द, पद-विन्यास तथा विशेषण सभी छायावादी प्रभाव से ग्रसित रहे हैं-
'तुम परा प्रकृति निस्सीम चपल
चिर सुन्दर जग की थाती से
सच कहता इस परवशता पर
क्या कर लेती हो याद मुझे।' (हिल्लोल)
भाषिक परिवर्तन के क्रम में छायावादी तत्सम-प्रधान शब्दावली से मुक्त होकर युग की माँग के अनुरूप प्रगतिवादी प्रभाव को ग्रहण करते हुए लोक-जीवन के निकट आकर सुमन ने आग्रहपूर्वक तद्भव शब्दों को स्वीकार किया है। ग्रामीण जीवन के माधुर्य और स्पन्दन को स्पन्दित करने के लिए कवि ने ग्रामीण शब्दावली को ही स्वरों में ढालकर गीतों का रूप दिया है-
'ताल तलैया भरे चहुँ ओर/ झकोर हिलोर में डोले जिया
दूब की चादर फैली दिगंत लौं मोर को शोर मरो रे जिया।' (पर आँखें नहीं भरीं)
एक साधक को पूरी ज़िन्दगी तिल-तिल जलकर, अंत तक भी जो हासिल नहीं होता, वह सुमन को अपने जीवन और सृजन के उदय-काल में ही, एकमुश्त मिल गया था। प्रकृति ने उन्हें कश्मीर जैसी उद्दाम और दुर्लभ सुषमा दी थी। ऊर्जा, सम्मोहन, मादकता और उछाह उनके यौवन के दिन थे, जो उन तक न ठहरकर उन तमाम स्पर्शों में, उस हवा में संक्रमित होते थे, जो उनका परिवेश था। कभी-कभी इतना कुछ पा लेना और दे सकना एक दहशत पैदा करता है, लेकिन सुमन ने आगे बढ़कर उसे आवेग से बाँहों में भरा और प्रस्तुति की एक अदा विकसित की। प्रतिभा को उन्होंने अग्नि और चिता से अधिक दीप्ति और आह्लाद में सहेजा, उसी टकसाल में लोकप्रियता ढली। सफ़लता और यश की सीढ़ियों पर लगातार चढ़ते हुए भीतर क्या कछ टटता या छीजता रहा है- इसे उन्हें छोडकर कौन जानेगा? उनके पत्रों में, बातचीत में और बाद की रचनाओं में कहीं-कहीं यह अहसास झलकने लगा है। 'मिट्टी की बारात' में जो वेदना है, वह 'वाणी की व्यथा' में कुछ ज़्यादा ही तिक्त होकर खुल पड़ी है। लेकिन गंगा और गरल की जोड़ी होती है। कंठ में जब गरल सधा हो तभी उन्मत्त गंगा जटाओं में बँधती है, इससे उल्टी बात भी सच है.
समग्रतः 'समन' एक जनवादी कवि के रूप में ही सामने आते हैं। शैली-शिल्प सम्बन्धी नवीन प्रयोगों को देखते हुए भी उनकी कविताएँ अपने स्वस्थ जीवन-दर्शन, स्फूर्ति, ओज और प्रगतिशील विषय-वस्तु के कारण सहज ही लोकप्रिय हो सकी हैं। प्रारम्भ से आज तक की रचनाओं में एक जनकवि की ईमानदारी और उसकी सामाजिक सर्जनात्मक चेतना का दर्शन मिलता है। जीवन के सच्चे अनुभवों के आधार पर जीए हुए दर्द को कवि ने चित्रित किया है। इनकी श्वास लयों पर छ: दशक की सांस्कारिक गीत-प्रतीतियाँ अंकित हैं, व्यक्तित्व में गतिशील गीत-इतिहास की अद्धशती जीवित है।
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