गीतकार-स्मृति- रमानाथ अवस्थी के पाँच गीत -पहला अन्तरा/अप्रैल-जून 2019/27

गीतकार-स्मृति


 


रमानाथ अवस्थी के पाँच गीत


(1)


कुछ आँसू बन गिर जाएँगे


कुछ दर्द चिता तक जाएँगे


उनमें ही कोई दर्द तुम्हारा भी होगा


सड़कों पर मेरे पाँव हुए कितने घायल


यह बात गाँव की पगडंडी बतलाएगी


सम्मान सहित हम सब कितने अपमानित हैं


यह चोट हमें जाने कब तक तड़पाएगी


कुछ टूट रहे सुनसानों में 


कुछ टूट रहे तहख़ानों में


उनमें ही कोई चित्र तुम्हारा भी होगा


वे भी दिन थे जब मरने में आनंद मिला


यह भी दिन हैं जब जीने से घबराता हूँ


वे भी दिन बीत गए हैं ये भी बीतेंगे


यह सोच किसी सैलानी-सा मुस्काता हूँ


कुछ अधिकारों में चमकेंगे


कुछ सूनेपन में खनकेंगे


उनमें ही कोई स्वप्न तुम्हारा भी होगा


अपना ही चेहरा चुभता है काँटे जैसा


जब सम्बन्धों की मालाएँ मुरझाती हैं


कुछ लोग कभी जो छूटे पिछले मोड़ों पर


उनकी यादें नींदों में आग लगाती हैं


कुछ राहों में बेचैन खड़े


कुछ बाहों में बेहोश पड़े


उनमें ही कोई प्राण तुम्हारा भी होगा।


साधू हो या हो साँप नहीं अन्तर कोई


जलता जंगल दोनों को साथ जलाता है


कुछ वैसी ही है आग हमारी बस्ती में


पर ऐसे में भी कोई-कोई गाता है


कुछ महफ़िल की जय बोलेंगे


कुछ दिल के दर्द टटोलेंगे


उनमें ही कोई गीत तुम्हारा भी होगा .


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(2) 


 तुमने मुझे बुलाया है मैं आऊँगा


बन्द न करना द्वार देर हो जाए तो


अनगिन साँसों का स्वामी होकर भी निरा अकेला है


पाँव थके हैं दिन भर अपनी माटी के संग खेला है


चरवाहे की रानी जैसी सुन्दर मेरी राह है


मुझको अपने से ज़्यादा सुन्दरता की परवाह है


मेरे आने तक मन में धीरज रखना


चाँद देख लेना यदि मन घबराए तो


महकी महकी साँसों वाले फूल बुलाते हैं मुझे


पर फूलों के संगी-साथी शूल रुलाते हैं मुझे


लेकिन मुझ यात्री का इन शूलों-फूलों से मोह क्या


मेरे मन का हंसा इससे अनगिन बार छला गया


मुझसे मिलने की आशा में सह लेना


यदि तुमको दुनिया का दर्द सताए तो 


मेरी मंजिल पर है रवि की धूप बदलियों की छाया


मैं इन दोनों की सीमाओं के घर में भी सो आया


लेकिन मुझको तो छूना है सीमा उस शृंगार की


जिसके लिए टूटती है हर मूरत इस संसार की


मैं न रहूँ तब मेरे गीतों को सुनना


जब कोई कोकिल जंगल में गाए तो


धो देते हैं बादल जब तब धूल भरे मेरे मन को 


लेकिन इनसे बहुत शिकायत है मेरे प्यासे मन को


मरुथल में चाँदनी तैरती लेकिन फूल नहीं खिलते


मन ने जिनको चाहा अकसर मन को वही नहीं मिलते


मेरा और तुम्हारा मिलना तो तय है


शंकित मत होना यदि जग बहकाए तो .


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(3) 


बादल भी है, बिजली भी है, पानी भी है सामने


मेरी प्यास अभी तक वैसी, जैसी दी थी राम ने


प्यास मुझे ही क्या, यह जग में सबको भरमाती है


जिसमें जितना पानी उसमें, उतनी आग लगाती है


आग जलाती ही है, चाहे भीतर हो या बाहर हो


जलने वाले से क्या कहिये पानी हो या पत्थर हो 


छाँव उसी की है, जिसको भी गले लगाया घाम ने 


मेरी प्यास अभी तक वैसी जैसी की थी राम ने


मेरे चारों ओर लगा है मेला चार दिशाओं का


जिसमें शोर बहुत है, कम है अर्थ हृदय के भावों का


मैं बिल्कुल वैसा ही हूँ इस अन्तहीन कोलाहल में


जैसे कोई आग, ढूँढती हो छाया दावानल में


मेरी जलन न जानी अब तक किसी सुबह या शाम ने


मेरी प्यास अभी तक वैसी जैसी दी थी राम ने


धन से लेकर घूघट तक के आँसू से परिचय मेरा


हर आँसू की आग अलग है, एक मगर जल का घेरा


कोई आँसू दिखलाता है, कोई इसे छिपाता है


कोई मेरी तरह अश्रु को गाकर जी बहलाता है


आँसू क्या वे समझें, जिनको सोख लिया धन्धाम ने 


 मेरी प्यास अभी तक वैसी जैसी दी थी राम ने .


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(4)


जितना सरल है आदमी उतना कठिन संसार है


केवल इसी से आदमी को आदमी से प्यार है


जीवन मिला जिस पर नशा है मौत का छाया हुआ


औ' प्राण है कोई पथिक ज्यों द्वार पर आया हुआ


आँखें लगीं धोने चरण मेहमान मुस्काने लगा


दुनिया रही खामोश लेकिन आदमी गाने लगा


जीवन उमीदों का सृजन औ' मृत्यु मन की हार है


केवल इसी से आदमी को आदमी से प्यार है.


जिनकी निगाहों में सुबह की रोशनी भी शाम है


जिनकी जवानी को छलकती चाँदनी बेकाम है


उनके लिए हँसती हुई दुनिया कभी रोती नहीं


जिनकी निगाहों में किसी के प्यार के मोती नहीं


बस प्यार से ही छल रहा हर एक का संसार है


केवल इसी से आदमी को आदमी से प्यार है


बुलबुल चमन की रागिनी बन आदमी के पास है


आँसू छिपाती भूमि, मन बहला रहा आकाश है


फिर भी किन्हीं मज़बूरियों से मन सम्भल पाता नहीं


आज़ाद पंछी-सा हृदय खुलकर कभी गाता नहीं


दिल तो किसी को प्यार करने के लिए लाचार है


 केवल इसी से आदमी को आदमी से प्यार है


दुनिया किसी को भी कभी दिल में जगह देती नहीं


शव पर चढ़ा दो अश्रु फिर यह नाम तक लेती नहीं


जब तक बने हर एक को मन से लगा जीते चलो 


विष भी मिले यदि प्यार से हँस हँस उसे पीते चलो


मरकर किसी की आँख भरना प्यार का उपहार है


केवल इसी से आदमी को आदमी से प्यार है


कितना सुखद मरना किसी के आँसुओं में डूबकर


कितना दुखद जीना जगत में ज़िन्दगी से ऊब कर


अभ्यास करता है यहाँ हर एक जीने के लिए


कोई नहीं तैयार हँसकर मौत पीने के लिए


हँसकर बिताना ज़िन्दगी सचमुच कठिन व्यापार है


  केवल इसी से आदमी को आदमी से प्यार है।


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(5)


भीड़ में भी रहता हूँ वीरान के सहारे


जैसे कोई मन्दिर किसी गाँव के किनारे


जाना-अनजाना शोर आता बिन बुलाए


जीवन की आग को आवाज में छपाए


दूर-दूर काली रात साँय-साँय करती


मन में न जाने कैसे कैसे रंग भरती


अनजाना, अनचाहा अंधकार बार-बार


करता है तारों से न जाने क्या इशारे।


चारों ओर बिखरे हैं धूल भरे रास्ते


पता नहीं कौन इसमें है मेरे वास्ते


जाने कहाँ जाने के लिए हूँ यहाँ आया


किसी देवी-देवता ने नहीं ये बताया


मिलने को मिलता है सारा ही ज़माना


एक नहीं मिलता जो प्यार से पुकारे


तन चाहे कहीं भी हो मन है सफ़र में


हुआ मैं पराया जैसे अपने ही घर में


सूरज की आग मेरे साथ-साथ चलती


चाँदनी से मिली-जुली रात मुझे छलती


तन की थकन तो उतार दी है पथ ने


जाने कौन मन की थकन को उतारे.


कोई नहीं लगा मुझे अपना पराया


दिल से मिला जो उसे दिल से लगाया


भेदभाव नहीं छिपा शूल या सुमन से


पाप-पुण्य जो भी किया, किया पूरे मन से


जैसा भी हूँ, वैसा ही हूँ समय के सामने


चाहे मुझे नाश करे चाहे मुझे मारे।


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